कलौ कलुषिते काले दुर्जये दुरतिक्रमे।
अपुण्यतमसाच्छन्ने लोके धर्मपराडरमुखे॥ १ |
क्षीणे वर्णाश्रमाचारे सङ्कटे समुपस्थिते।
सर्वाधिकारे संदिग्धे निश्चिते वापि पर्यये ॥ २ ॥
तपोदेशे विहते गुरुशिष्यक्रमे गते।
कनोपायेन मुच्यन्ते भक्तास्तव महेश्वर ॥ ३॥
देवी बोलीं-महेश्वर!
दुर्जय, दुर्लङ्खध एवं कलुषित कलि काल में जब सारा संसार धर्म से विमुख हो पापमय अन्धकारसे आच्छादित हो जायगा, वर्ण और आश्रम-सम्बन्धी आचार नष्ट हो जायेंगे, धर्मसंकट उपस्थित हो जायगा, सबका अधिकार संदिग्ध, अनिश्चित और विपरीत हो जायगा, उस समय उपदेश की प्रणाली नष्ट हो जायगी और गुरु-शिष्य की परम्परा भी जाती रहेगी, ऐसी परिस्थिति में आपके भक्त किस उपाय से मुक्त हो सकते हैं?॥ १--३॥
आश्रित्य परमां विद्यां हृद्यां पञ्चाक्षरीं मम।
भक्त्या च भावितात्मानो मुच्यन्ते कलिजा नराः ॥ ४
देवि ! कलिकालके मनुष्य मेरी परम मनोरम पंचाक्षरी विद्या का आश्रय ले भक्ति से भावितचित्त होकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं॥ ४॥
मनोवाक्कायजैदर्दोषैर्वक्तुं स्मर्तुमगोचरैः ।
दूषितानां कृतघ्नानां निन्दकानां छलात्मनाम्।।॥ ५
लुब्धानां वक्रमनसामपि मत्प्रवणात्मनाम्।
मम पञ्चाक्षरी विद्या संसारभयतारिणी ॥ ६
मयैवमसकृद्देवि प्रतिज्ञातं धरातले ।
पतितोऽपि विमुच्येत मद्भक्तो विद्ययाऽनया ॥ ७
जो अकथनीय और अचिन्तनीय हैं- उन मानसिक, वाचिक और शारीरिक दोषोंसे जो दूषित, कृतघ्न, निर्दय, छली, लोभी और कुटिलचित्त हैं, वे मनुष्य भी यदि मुझ में मन लगाकर मेरी पंचाक्षरी विद्या का जप करेंगे, उनके लिये वह विद्या ही संसारभयसे तारने वाली होगी । देवि! मैंने बारंबार प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही है कि भूतलपर मेरा पतित हुआ भक्त भी इस पंचाक्षरी विद्याके द्वारा बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥ ५--७॥
तस्मात्तपांसि यज्ञाश्च व्रतानि नियमास्तथा।
पञ्चाक्षरार्चनस्यैते कोट्यंशेनापि नो समाः ॥ १३
बद्धो वाप्यथ मुक्तो वा पाशात्पञ्चाक्षरेण यः।
पूजयेन्मां स मुच्येत नात्र कार्या विचारणा ॥ १४
तप, यज्ञ, व्रत और नियम पंचाक्षरद्वारा मेरे पूजन की करोड़वीं कला के समान भी नहीं हैं। कोई बद्ध हो या मुक्त, जो पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा मेरा पूजन करता है, वह अवश्य ही संसारपाश से छुटकारा पा जाता है॥ १३-१४॥
Aum (Om) is a sacred sound, a primordial vibration resonating through the cosmos. Its practice, known as Aum Mantra Sadhana, offers seekers a path to inner peace, Spiritual awakening, and connection with the divine. Here's a comprehensive guide for those starting their journey with the Panchakshri / Shadashri mantra.
Step 1: Seek a Guru or Mentor:
Seek guidance from an experienced Spiritual teacher or guru. Approach someone well-versed in the teachings of Aum, who can initiate and guide you through the practice.
Step 2: Initiation (Diksha, Yam, Niyam):
Receive initiation (diksha) from your guru. During this ceremony, the guru imparts the Aum mantra and instructs on its pronunciation, significance, and proper use.
Step 3: Understanding the Mantra:
Understand the significance of Aum. It represents the union of the three primal sounds (A-U-M) symbolizing creation, preservation, and dissolution, as well as the three states of consciousness—waking, dreaming, and deep sleep.
Step 4: Establish a Sacred Space:
Create a serene and clean space for your practice. This space can serve as your personal altar or meditation corner, fostering a conducive environment for Spiritual growth.
Step 5: Posture (Asana) and Breathing (Prayanam):
Sit in a comfortable posture, spine erect, in a quiet place. Take a few deep breaths to center yourself and calm the mind before starting the practice.
Step 6: Chanting the Aum Mantra:
Focus on the sound of Aum. Begin chanting it aloud or silently, feeling the vibration within your body. Repeat it slowly and steadily, allowing the sound to resonate deeply.
Step 7: Visualization (Dharana) and Meditation (Dhyan):
Concentrate on the visual image or inner experience associated with Aum. Some practitioners visualize the symbol 'ॐ,' while others focus on the sound or its resonance. Enter a state of deep meditation, absorbing the mantra's essence.
Step 8: Regular Practice (Abhyas):
Commit to regular practice. Start with shorter sessions and gradually extend the duration as you progress. Consistency is key in harnessing the full benefits of Aum Sadhana.
Step 9: Integration into Daily Life:
Integrate the Aum mantra into your daily routine. Chant it during meditation sessions, before meals, or while performing daily activities, fostering a continuous connection with its transformative energy.
Step 10: Seek Guru Guidance and Progress:
Stay connected with your guru or Spiritual mentor for guidance and clarification. As you progress, seek deeper understanding and refine your practice under their guidance.
Embarking on Aum Mantra Sadhana is a profound journey towards self-realization and Spiritual elevation. With dedication, reverence, and guidance, the practice of Aum leads one towards inner harmony, awakening, and a deeper connection with the universe.
विशेष: यह साधना विशेषतः शैव साधकों के लिए है, इसलिए उनमें कुछ अघोरी और कुछ वामपंथी सिद्धांतों का समावेश हो सकता है। उनके लिए उनके तीनों सन्ध्याओं, अर्थात् तीनों समयों में पूजन अत्यंत आवश्यक है। अगर उन्हें अघोरी पूजन क्रम का अनुभव है, तो वे प्रतिदिन उसी पूजा करें। क्योंकि इस साधना का मूल तत्व अघोरी है, लेकिन सौम्यता को ध्यान में रखकर। इस साधना को अच्छे दिनों वाले वक्त से प्रारम्भ करे ताकि साधना क्रम के बीच में कोई बाधा न आए।
यह साधना गुरु कृपा से सफल हो और आपको कृपा प्राप्त हो।
शिव और शक्ति का आशीर्वाद आप और आपके परिवार पर।
गुरु ॐ सुशांत
पतितोऽपतितो वापि मन्त्रेणानेन पूजयेत्।
मम भक्तो जितक्रोधो सलब्धोऽलब्ध एव वा ॥ १७
अलब्धाल्लब्ध एवेह कोटिकोटिगुणाधिकः ।
तस्मात् लब्ळवैव मां देवि मन्त्रेणानेन पूजयेत् ।। १८
कोई पतित हो या अपतित, वह इस पंचाक्षरः मन्त्र के द्वारा मेरा पूजन करे। मेरा भक्त पंचाक्षर मन्त्र का उपदेश गुरु से ले चुका हो या नहीं, वह क्रोध को जीतकर इस मन्त्र के द्वारा मेरी पूजा किया करे।
जिसने मन्त्र की दीक्षा नहीं ली है, उसकी अपेक्षा दीक्षा लेनेवाला पुरुष कोटि-कोटि गुणा अधिक माना गया है। अतः देवि! दीक्षा लेकर ही इस मन्त्र से मेरा पूजन करना चाहिये ॥ १७-१८ ॥
किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैः शास्त्रैर्वा बहुविस्तरैः ।
यस्योऱ्नमः शिवायेति मन्त्रोऽयं हृदि संस्थितः ॥ ३४
तेनाधीतं श्रुतं तेन कृतं सर्वमनुष्ठितम्।
येनोन्नमः शिवायेति मन्त्राभ्यासः स्थिरीकृतः ॥ ३५
नमस्कारादिसंयुक्तं शिवायेत्यक्षरत्रयम्।
जिह्राग्रे वर्तते यस्य सफलं तस्य जीवितम्॥ ३६
अंत्यजो वाधमो वापि मूखों वा पंडितोऽपि वा।
पञ्चाक्षरजपे निष्ठो मुच्यते पापपञ्जरात्॥ ३७
जिसके हदय में ॐ नमः शिवाय' यह षडक्षरः मन्त्र प्रतिष्ठित है, उसे दूसरे बहुसंख्यक मन्त्रों और अनेक विस्तृत शास्त्रोंसे क्या प्रयोजन है?
जिसने ' ॐ नमः शिवाय' इस मन्त्रका जप दृढतापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिया और समस्त शुभ कृत्योंका अनुष्ठान पूरा कर लिया।
आदि मे 'नमः' पदसे युक्त ' शिवाय' --ये तीन अक्षर जिसकी जिह्वाके अग्रभागमें विद्यमान हैं, उसका जीवन सफल हो गया।
पंचाक्षर मन्त्र के जपमें लगा हुआ पुरुष यदि पण्डित, मूर्ख, अन्त्यज अथवा अधम भी हो तो वह पापपंजरसे मुक्त हो जाता है॥ ३४--३७ ॥
शिवपुराण के अनुसार एक बार माँ पार्वती भोलेनाथ से पूछती हैं कि कलियुग में समस्त पापों को दूर करने के लिए किस मंत्र का आशय लेना चाहिए? देवी पार्वती के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान शिव कहते हैं कि प्रलय काल में जब सृष्टि में सब समाप्त हो गया था,तब मेरी आज्ञा से समस्त वेद और शास्त्र पंचाक्षर में विलीन हो गए थे।सबसे पहले शिवजी ने अपने पांच मुखों से यह मंत्र ब्रह्माजी को प्रदान किया था। शिव पुराण के अनुसार इस मंत्र के ऋषि वामदेव हैं एवं स्वयं शिव इसके देवता हैं।
मंत्र का महत्व
स्कन्दपुराण में कहा गया है कि-'ॐ नमः शिवाय 'महामंत्र जिसके मन में वास करता है, उसके लिए बहुत से मंत्र, तीर्थ, तप व यज्ञों की क्या जरूरत है।
यह मंत्र मोक्ष प्रदाता है,पापों का नाश करता है और साधक को लौकिक,परलौकिक सुख देने वाला है । वेदों और पुराणों के अनुसार शिव अर्थात सृष्टि के सृजनकर्ता को प्रसन्न करने के लिए सिर्फ “ॐ नमः शिवाय” का जप ही काफी है।
भोलेनाथ इस मंत्र से बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं एवं इस मंत्र के जप से आपके सभी दुःख, सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आप पर शिवजी की असीम कृपा बरसने लगती है।
ॐ नमः शिवाय इस मंत्र को शरणागति मंत्र के नाम से भी जाना जाता है शरणागति का शाब्दिक अनुवाद समर्पण है
आराधना–साधना के लिए आप सभी को अग्रिम रूप से ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ! शिव की साधना (Shiv Sadhna) सरल मानी जाती है। भगवान शिव मात्र जल और कुछ पत्तियां चढ़ाने से प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं, लेकिन उनकी विशेष पूजा से विशेष सिद्धि और फल मिलते हैं। भगवान शिव के साधक को पूजा करते समय दिशा का विशेष ख्याल रखना चाहिए।
भगवान शिव (God Shiv) की मूर्ति या चित्र को कहीं भी किसी भी दिशा में न रखें, बल्कि घर के ईशान कोण में ही पूजा स्थान बनाकर उसमें पवित्रता के साथ रखें और दैनिक रूप से उनकी पूजा करें। इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि शिव की मूर्ति या चित्र खंडित न हो
शिव की पूजा में उनके शिवलिंग या शिव प्रतिमा को शुद्ध करना चाहिए। प्रतिमा को साफ करने के लिए अलग से एक चम्मच और पानी का उपयोग करें। इसके अलावा, आप शिव को दूध, धूप, और दीप आदि भी अर्पित कर सकते हैं।
शिव के साधक को SHIV JI की पूजा करनी चाहिए, पूजा में धूप, दीप, फल और पुष्प चढ़ाने के अलावा भगवान शिव को गंगाजल / पंचामृत (PANCHAMRIT) से स्नान कराकर, निष्ठा और श्रद्धा से उनकी विधिवत पूजा करनी चाहिए।
प्रार्थना करना चाहिए की उन्हें सभी संकटों से बचाएं और उन्हें जीवन में समृद्धि और सुख-शांति प्रदान करें।
उदात्तः प्रथमो वर्णश्चतुर्थश्च द्वितीयकः ।
पञ्चमः स्वरितश्चैव तृतीयो निहितः स्मृतः ॥ ५०
मूलविद्या शिवं शैवं सूत्रं पञ्चाक्षरं तथा।
सामान्यस्य विजानीयाच्छेवं मे हृदयं महत् ॥५१
पंचाक्षर-मन्त्रका पहला अक्षर उदात्त है। दूसरा और चौथा भी उदात्त ही है। पाँचवाँ स्वरित है और तीसरा अक्षर अनुदात्त माना गया है। इस पंचाक्षर- मन्त्रके-मूल विद्या शिव, शैव, सूत्र तथा पंचाक्षर नाम जाने। शैव (शिवसम्बन्धी) बीज प्रणव मेरा विशाल हृदय है॥ ५०-५१॥
नकारः शिर उच्येत मकारस्तु शिखोच्यते।
शिकारः कवचं तद्वद्वकारो नेत्रमुच्यते ॥ ५२
यकारोऽस्त्रं नमः स्वाहा वषट् हुं वौषडित्यपि।
फडित्यपि च वर्णानामन्तेऽङ्गत्वं यदा तदा ॥ ५३
नकार सिर कहा गया है, मकार शिखा है, 'शि' कवच है, 'वा' नेत्र है और यकार अस्त्र है। इन वर्णांक अन्त में अंगों के चतुर्थ्यन्तरूपके साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् जोड़ने से अंगन्यास होता है॥ ५२-५३ ॥
अकारोकारमकारा मदीये प्रणवे स्थिताः ।
उकारं च मकारं च अकारं च क्रमेण वै ॥ ४५
त्वदीयं प्रणवं विद्धि त्रिमात्रं प्लुतमुत्तमम्।
ओङ्कारस्य स्वरोदात्त ऋषिर्ब्रह्मा सितं वपुः ॥ ४६
छन्दो देवी च गायत्री परमात्माधिदेवता।
उदात्तः प्रथमस्तद्वच्चतुर्थश्च द्वितीयकः ॥ ४७
पञ्चमः स्वरितश्चैव मध्यमो निषधः स्मृतः ।
हे देवि!'अ', 'उ', 'म' मेरे प्रणव में स्थित हैं।
क्रम से 'उ', 'म', 'अ' तुम्हारे प्रणव के हैं;
तुम इस उत्तम प्रणव को प्लुत तीन मात्राओं वाला जानो।
ओंकार का स्वर उदात्त है. इसके ऋषि ब्रह्मा हैं, इसका शरीर श्वेत है, छन्द देवी गायत्री हैं और इसके अधिदेवता परमात्मा हैं।
इसका पहला, दूसरा तथा चौथा वर्ण उदात्तः पाँचवाँ वर्ण स्वरित और मध्यम वर्ण निषध [निषादस्वर] कहा गया है ॥ ४५-४७२॥
1 उदात्त उच्च स्वर
2 उदात्त उच्च स्वर
3 निषध [निषादस्वर]
4 उदात्तः उच्च स्वर
5 स्वरित सध्यम उच्चरित स्वर
प्लुत - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
उदात्त (Acute) 'उदात्त' शब्द 'उत्' तथा 'आ' पूर्वक 'दा' धातु में 'क्त' प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ । इस प्रकार 'उदात्त' का शाब्दिक अर्थ है- ऊपर उठाकर ग्रहण किया हुआ - अर्थात् उच्च स्वर से जिसका ग्रहण अर्थात् उच्चारण होता.
निषादस्वर - संगीत के सात स्वरों में अंतिम और सबसे ऊँचा स्वर जिसका संक्षिप्त रूप 'नि' है । विशेष—इसकी दो श्रुतियाँ हैं—उग्रता और शोभिनी । नारद के अनुसार यह स्वर हाथी के स्वर के समान है और इसका उच्चारणस्थान ललाट है ।
स्वरित - उच्चारण के अनुसार स्वर के तीन भेदों में से एक । वह स्वर जिसमें उदात्त और अनुदात्त दोनों गुण हैं । वह स्वर जिसका उच्चारण न बहुत जोर से हो ओर न बहुत धीरे से । सध्यम रूप से उच्चरित स्वर ।
भारतीय संगीत में सात स्वर (Notes Scalse)
षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद।
जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं।
ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं।
वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६ बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३ बार कंप होने पर ऋषभ, ३२० बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८० बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है। तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं।
भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है। जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि।
संगीत के सात स्वरों में अंतिम और सबसे ऊँचा स्वर जिसका संक्षिप्त रूप 'नि' है । विशेष: इसकी दो श्रुतियाँ हैं—उग्रता और शोभिनी ।
नारद के अनुसार यह स्वर हाथी के स्वर के समान है और इसका उच्चारणस्थान ललाट है । व्याकरण के अनुसार यह दंत्य है । संगीतदर्पण के अनुसार इस स्वर की उत्पत्ति असुर वंश में हुई है । इसकी जाति वेश्य, वर्णा विचित्र, जन्म पुष्कर द्वीप में, ऋषि तुंबरु, देवता सूर्य और छंद जगती है । यह संपूर्ण जाति का स्वर है । और करुण इसके लिये विशेष उपयोगी हैं । इसकी फूट तान ५०४० हैं । इसका वार शनिवार और समय रात्री के अंत की २ घड़ी ३४ पल है । इसका स्वरूप गणेश जी के समान माना जाता है ।
नकारः पीतवर्णश्च स्थानं पूर्वमुखं स्मृतम् ॥ ४८
इन्द्रोऽधिदैवतं छन्दो गायत्री गौतमो ऋषिः।
मकारः कृष्णवर्णोऽस्य स्थानं वै दक्षिणामुखम् ।। ४९
छन्दोऽनुष्टुप् ऋषिश्चात्री रुद्रो दैवतमुच्यते।
शिकारो धूम्रवर्णोऽस्य स्थानं वै पश्चिमं मुखम् ॥ ५०
विश्वामित्र ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दो विष्णुस्तु दैवतम्।
वाकारो हेमवर्णोऽस्य स्थानं चैवोत्तरं मुखम् ॥ ५१
ब्रह्माधिदैवतं छन्दो बृहती चाङ्गिरा ऋषिः।
यकारो रक्तवर्णश्च स्थानमूर्ध्व मुखं विराट् ॥ ५२
न' पीले रंगका है और स्थान पूर्वमुख (पूरब की ओर मुखवाला) कहा गया है, इसके अधिदेवता इन्द्र हैं, इसका छन्द गायत्री है और इसके ऋषि गौतम हैं।
'म' कृष्ण वर्णवाला है, इसका स्थान दक्षिणमुख है, इसका छन्द अनुष्टुप् है, इसके ऋषि अत्रि हैं और इसके अधिदेवता रुद्र कहे जाते हैं।
'शि' धूम्र वर्णवाला है, इसका स्थान पश्चिममुख है, इसके ऋषि विश्वामित्र हैं, इसका छन्द त्रिष्टुप् है और इसके देवता विष्णु हैं।
'वा' हेम वर्णवाला है, इसका स्थान उत्तरमुख है, इसके अधिदेवता ब्रह्मा हैं, इसका छन्द बृहती है और इसके ऋषि अंगिरा हैं।
'य' लाल रंगवाला है, इसका स्थान ऊर्ध्वमुख है, इसका छन्द विराट् है, इसके ऋषि भरद्वाज हैं और इसके देवता स्कन्द कहे जाते हैं ॥ ४८-५२१/२ ॥
छन्दो ऋषिर्भरद्वाजः स्कन्दो दैवतमुच्यते।
न्यासमस्य प्रवक्ष्यामि सर्वसिद्धिकरं शुभम् ॥ ५३
सर्वपापहरं चैव त्रिविधो न्यास उच्यते ।
उत्पत्तिस्थितिसंहारभेदतस्त्रिविधः स्मृतः ॥ ५४
ब्रह्मचारिगृहस्थानां यतीनां क्रमशो भवेत्।
उत्पत्तिर्ब्रह्मचारीणां गृहस्थानां स्थितिः सदा ॥ ५५
[हे देवि!] अब मैं सभी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले, मंगलमय तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाले इसके न्यासको बताऊँगा। न्यास तीन प्रकारका कहा जाता है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) तथा संहार के भेदसे यह तीन प्रकारका कहा गया है; यह क्रमशः ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियों के लिये होता है। उत्पत्ति [न्यास] ब्रह्मचारियों का, स्थिति [न्यास] गृहस्थों का और संहति (संहार) न्यास यतियों का होता है; अन्यथा सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती ॥ ५३-५५/३॥
यतीनां संहतिन्यासः सिद्धिर्भवति नान्यथा।
अङ्गन्यासः करन्यासो देहन्यास इति त्रिधा ॥ ५६
उत्पत्त्यादित्रिभेदेन वक्ष्यते ते वरानने ।
न्यसेत्पूर्व करन्यासं देहन्यासमनन्तरम् ॥ ५७
अङ्गन्यासं ततः पश्चादक्षराणां विधिक्रमात्।
मूर्धादिपादपर्यन्तमुत्पत्तिन्यास उच्यते ।। ५८
पादादिमूर्धपर्यन्तं संहारो भवति प्रिये।
हृदयास्यगलन्यासः स्थितिन्यास उदाहृतः ॥ ५९
अंगन्यास, करन्यास, देहन्यास-यह तीन प्रकारका न्यास होता है; हे वरानने! अब मैं उत्पत्ति आदि तीन भेदों से इन्हें भी आपको बताऊँगा।
सबसे पहले करन्यास उसके बाद देहन्यास
पुनः अंगन्यास मन्त्रके अक्षरों के क्रमसे करना चाहिये।
सिर से प्रारम्भ होकर पैरों तक का न्यास उत्पत्तिन्यास कहा जाता है।
हे प्रिये! पैरों से प्रारम्भ होकर सिर तक का न्यास संहारन्यास होता है।
हृदय, मुख और कण्ठ का न्यास स्थितिन्यास कहा गया है।
हे शोभने। यह न्यास [क्रमशः] ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियों के लिये है॥५६-५९२॥
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि न्यासकर्म समाचरेत्।
स्मरेत्पूर्वमृषिं छन्दो दैवतं बीजमेव च ॥ ६६
शक्तिं च परमात्मानं गुरुं चैव वरानने।
मन्त्रेण पाणी सम्मृज्य तलयोः प्रणवं न्यसेत् ॥ ६७
अङ्गुलीनां च सर्वेषां तथा चाद्यन्तपर्वसु।
सबिन्दुकानि बीजानि पञ्चमध्यमपर्वसु ॥ ६८
उत्पत्त्यादित्रिभेदेन न्यसेदाश्रमतः क्रमात्।
उभाभ्यामेव पाणिभ्यामापादतलमस्तकम् ॥ ६९
मन्त्रेण संस्पृशेद्देहं प्रणवेनैव सम्पुटम्।
मूर्हिन वक्त्रे च कण्ठे च हृदये गुह्यके तथा ॥ ७०
पादयोरुभयोश्चैव गुह्ये च हृदये तथा।
कण्ठे च मुखमध्ये च मूर्छिन च प्रणवादिकम् ॥ ७१
हृदये गुह्यके चैव पादयोर्मूर्हिन वाचि वा।
कण्ठे चैव न्यसेदेव प्रणवादित्रिभेदतः ॥ ७२
कृत्याङ्गन्यासमेवं हि मुखानि परिकल्पयेत्।
पूर्वादि चोर्ध्वपर्यन्तं नकारादि यथाक्रमम् ॥ ७३
षडङ्गानि न्यसेत्पश्चाद्यथास्थानं च शोभनम्।
नमः स्वाहा वषड्डुं च वौष फकारकैः सह ।। ७४
हे वरानने। प्रारम् भमें ऋषि, छन्द, देवता, बीर, शक्ति, परमात्मा तथा गुरुका स्मरण करना चाहिये। मन् त्रके उच्चारण के साथ दोनों हाथोंको धोकर दोनों करतलों में प्रणवका न्यास करना चाहिये। सभी अँगुलियों आदि-अन्त पर्वोपर और पाँचों मध्यम पर बिन्दुपुरु पाँच बीजोंका उत्पत्ति आदि तीन भेदोंसे तथा ब्रह्मचर्य आदिके क्रमसे न्यास करना चाहिये। दोनों हाथोंसे मस्तकसे लेकर पैर तक प्रणव के द्वारा सम्पुटित मन्त्रसे देहका स्पर्श करना चाहिये। प्रणवयुक्त मन्त्रसे सिर, मुख, कण्ठ, हृदय, गुह्यस्थान एवं दोनों पैरोंमें; गुद्धस्थान, हृदय, कण्ठ, मुख तथा सिरमें; पुनः हृदय, गुह्मस्थान, दोनों पैरों, सिर, मुख तथा कण्ठमें तीन प्रकारका व्यास करना चाहिये। इस प्रकार अंगन्यास करके प्रणवसहित नकारसे प्रारम्भ होकर यकारपर पूर्ण होनेवाले इन नकार आदि वर्णोंकी क्रमशः अपने शरीरमें भावना करे। इसके बाद मन्त्रमें नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् तथा फट्के साथ यथास्थान छहों अंगों में उत्तम रीतिसे न्यास करना चाहिये ॥ ६६-७४ ॥
नकारः शिर उच्येत मकारस्तु शिखोच्यते। शिकारः कवचं तद्वद्वकारो नेत्रमुच्यते ॥
५२ यकारोऽस्त्रं नमः स्वाहा वषट् हुं वौषडित्यपि। फडित्यपि च वर्णानामन्तेऽङ्गत्वं यदा तदा ॥
५३ नकार सिर कहा गया है, मकार शिखा है, 'शि' कवच है, 'वा' नेत्र है और यकार अस्त्र है।
इन वर्णांक अन्त में अंगों के चतुर्थ्यन्तरूपके साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् जोड़ने से अंगन्यास होता है॥ ५२-५३ ॥
अकारोकारमकारा मदीये प्रणवे स्थिताः ।
उकारं च मकारं च अकारं च क्रमेण वै ॥ ४५
त्वदीयं प्रणवं विद्धि त्रिमात्रं प्लुतमुत्तमम्।
ओङ्कारस्य स्वरोदात्त ऋषिर्ब्रह्मा सितं वपुः ॥ ४६
छन्दो देवी च गायत्री परमात्माधिदेवता।
उदात्तः प्रथमस्तद्वच्चतुर्थश्च द्वितीयकः ॥ ४७
पञ्चमः स्वरितश्चैव मध्यमो निषधः स्मृतः ।
हे देवि!'अ', 'उ', 'म' मेरे प्रणव में स्थित हैं।
क्रम से 'उ', 'म', 'अ' तुम्हारे प्रणव के हैं;
तुम इस उत्तम प्रणव को प्लुत तीन मात्राओं वाला जानो।
ओंकार का स्वर उदात्त है. इसके ऋषि ब्रह्मा हैं, इसका शरीर श्वेत है, छन्द देवी गायत्री हैं और इसके अधिदेवता परमात्मा हैं।
इसका पहला, दूसरा तथा चौथा वर्ण उदात्तः पाँचवाँ वर्ण स्वरित और मध्यम वर्ण निषध [निषादस्वर] कहा गया है ॥ ४५-४७२॥
1 उदात्त उच्च स्वर
2 उदात्त उच्च स्वर
3 निषध [निषादस्वर]
4 उदात्तः उच्च स्वर
5 स्वरित सध्यम उच्चरित स्वर
प्लुत - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
उदात्त (Acute) 'उदात्त' शब्द 'उत्' तथा 'आ' पूर्वक 'दा' धातु में 'क्त' प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ । इस प्रकार 'उदात्त' का शाब्दिक अर्थ है- ऊपर उठाकर ग्रहण किया हुआ - अर्थात् उच्च स्वर से जिसका ग्रहण अर्थात् उच्चारण होता.
निषादस्वर - संगीत के सात स्वरों में अंतिम और सबसे ऊँचा स्वर जिसका संक्षिप्त रूप 'नि' है । विशेष—इसकी दो श्रुतियाँ हैं—उग्रता और शोभिनी । नारद के अनुसार यह स्वर हाथी के स्वर के समान है और इसका उच्चारणस्थान ललाट है ।
स्वरित - उच्चारण के अनुसार स्वर के तीन भेदों में से एक । वह स्वर जिसमें उदात्त और अनुदात्त दोनों गुण हैं । वह स्वर जिसका उच्चारण न बहुत जोर से हो ओर न बहुत धीरे से । सध्यम रूप से उच्चरित स्वर ।
भारतीय संगीत में सात स्वर (notes scale)
षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद।
जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं।
ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं।
वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६ बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३ बार कंप होने पर ऋषभ,
३२० बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८० बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है।
तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं।
भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं।
जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है।
जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि।
संगीत के सात स्वरों में अंतिम और सबसे ऊँचा स्वर जिसका संक्षिप्त रूप 'नि' है । विशेष—इसकी दो श्रुतियाँ हैं—उग्रता और शोभिनी । नारद के अनुसार यह स्वर हाथी के स्वर के समान है और इसका उच्चारणस्थान ललाट है ।
व्याकरण के अनुसार यह दंत्य है । संगीतदर्पण के अनुसार इस स्वर की उत्पत्ति असुर वंश में हुई है ।
इसकी जाति वेश्य, वर्णा विचित्र, जन्म पुष्कर द्वीप में, ऋषि तुंबरु, देवता सूर्य और छंद जगती है ।
यह संपूर्ण जाति का स्वर है । और करुण इसके लिये विशेष उपयोगी हैं । इसकी फूट तान ५०४० हैं । इसका वार शनिवार और समय रात्री के अंत की २ घड़ी ३४ पल है । इसका स्वरूप गणेश जी के समान माना जाता है ।
नकारः पीतवर्णश्च स्थानं पूर्वमुखं स्मृतम् ॥ ४८
इन्द्रोऽधिदैवतं छन्दो गायत्री गौतमो ऋषिः।
मकारः कृष्णवर्णोऽस्य स्थानं वै दक्षिणामुखम् ।। ४९
छन्दोऽनुष्टुप् ऋषिश्चात्री रुद्रो दैवतमुच्यते।
शिकारो धूम्रवर्णोऽस्य स्थानं वै पश्चिमं मुखम् ॥ ५०
विश्वामित्र ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दो विष्णुस्तु दैवतम्।
वाकारो हेमवर्णोऽस्य स्थानं चैवोत्तरं मुखम् ॥ ५१
ब्रह्माधिदैवतं छन्दो बृहती चाङ्गिरा ऋषिः।
यकारो रक्तवर्णश्च स्थानमूर्ध्व मुखं विराट् ॥ ५२
न' पीले रंगका है और स्थान पूर्वमुख (पूरबकी ओर मुखवाला) कहा गया है, इसके अधिदेवता इन्द्र हैं, इसका छन्द गायत्री है और इसके ऋषि गौतम हैं।
'म' कृष्ण वर्णवाला है, इसका स्थान दक्षिणमुख है, इसका छन्द अनुष्टुप् है, इसके ऋषि अत्रि हैं और इसके अधिदेवता रुद्र कहे जाते हैं।
'शि' धूम्र वर्णवाला है, इसका स्थान पश्चिममुख है, इसके ऋषि विश्वामित्र हैं, इसका छन्द त्रिष्टुप् है और इसके देवता विष्णु हैं।
'वा' हेम वर्णवाला है, इसका स्थान उत्तरमुख है, इसके अधिदेवता ब्रह्मा हैं, इसका छन्द बृहती है और इसके ऋषि अंगिरा हैं।
'य' लाल रंगवाला है, इसका स्थान ऊर्ध्वमुख है, इसका छन्द विराट् है, इसके ऋषि भरद्वाज हैं और इसके देवता स्कन्द कहे जाते हैं ॥ ४८-५२१/२ ॥
छन्दो ऋषिर्भरद्वाजः स्कन्दो दैवतमुच्यते।
न्यासमस्य प्रवक्ष्यामि सर्वसिद्धिकरं शुभम् ॥ ५३
सर्वपापहरं चैव त्रिविधो न्यास उच्यते ।
उत्पत्तिस्थितिसंहारभेदतस्त्रिविधः स्मृतः ॥ ५४
ब्रह्मचारिगृहस्थानां यतीनां क्रमशो भवेत्।
उत्पत्तिर्ब्रह्मचारीणां गृहस्थानां स्थितिः सदा ॥ ५५
[हे देवि!] अब मैं सभी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाले, मंगलमय तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाले इसके न्यासको बताऊँगा।
न्यास तीन प्रकारका कहा जाता है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) तथा संहार के भेदसे यह तीन प्रकारका कहा गया है;
यह क्रमशः ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियोंके लिये होता है। उत्पत्ति [न्यास] ब्रह्मचारियों का, स्थिति [न्यास] गृहस्थों का और संहति (संहार) न्यास यतियों का होता है; अन्यथा सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती ॥ ५३-५५/३॥
यतीनां संहतिन्यासः सिद्धिर्भवति नान्यथा।
अङ्गन्यासः करन्यासो देहन्यास इति त्रिधा ॥ ५६
उत्पत्त्यादित्रिभेदेन वक्ष्यते ते वरानने ।
न्यसेत्पूर्व करन्यासं देहन्यासमनन्तरम् ॥ ५७
अङ्गन्यासं ततः पश्चादक्षराणां विधिक्रमात्।
मूर्धादिपादपर्यन्तमुत्पत्तिन्यास उच्यते ।। ५८
पादादिमूर्धपर्यन्तं संहारो भवति प्रिये।
हृदयास्यगलन्यासः स्थितिन्यास उदाहृतः ॥ ५९
अंगन्यास, करन्यास, देहन्यास-यह तीन प्रकारका न्यास होता है; हे वरानने! अब मैं उत्पत्ति आदि तीन भेदोंसे इन्हें भी आपको बताऊँगा।
सबसे पहले करन्यास उसके बाद देहन्यास
पुनः अंगन्यास मन्त्रके अक्षरोंके क्रमसे करना चाहिये।
सिर से प्रारम्भ होकर पैरों तक का न्यास उत्पत्तिन्यास कहा जाता है।
हे प्रिये! पैरोंसे प्रारम्भ होकर सिरतकका न्यास संहारन्यास होता है।
हृदय, मुख और कण्ठ का न्यास स्थितिन्यास कहा गया है।
हे शोभने। यह न्यास [क्रमशः] ब्रह्मचारियों, गृहस्थों तथा यतियोंके लिये है॥५६-५९२॥
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि न्यासकर्म समाचरेत्।
स्मरेत्पूर्वमृषिं छन्दो दैवतं बीजमेव च ॥ ६६
शक्तिं च परमात्मानं गुरुं चैव वरानने।
मन्त्रेण पाणी सम्मृज्य तलयोः प्रणवं न्यसेत् ॥ ६७
अङ्गुलीनां च सर्वेषां तथा चाद्यन्तपर्वसु।
सबिन्दुकानि बीजानि पञ्चमध्यमपर्वसु ॥ ६८
उत्पत्त्यादित्रिभेदेन न्यसेदाश्रमतः क्रमात्।
उभाभ्यामेव पाणिभ्यामापादतलमस्तकम् ॥ ६९
मन्त्रेण संस्पृशेद्देहं प्रणवेनैव सम्पुटम्।
मूर्हिन वक्त्रे च कण्ठे च हृदये गुह्यके तथा ॥ ७०
पादयोरुभयोश्चैव गुह्ये च हृदये तथा।
कण्ठे च मुखमध्ये च मूर्छिन च प्रणवादिकम् ॥ ७१
हृदये गुह्यके चैव पादयोर्मूर्हिन वाचि वा।
कण्ठे चैव न्यसेदेव प्रणवादित्रिभेदतः ॥ ७२
कृत्याङ्गन्यासमेवं हि मुखानि परिकल्पयेत्।
पूर्वादि चोर्ध्वपर्यन्तं नकारादि यथाक्रमम् ॥ ७३
षडङ्गानि न्यसेत्पश्चाद्यथास्थानं च शोभनम्।
नमः स्वाहा वषड्डुं च वौषट्फकारकैः सह ।। ७४
हे वरानने। प्रारम्भमें ऋषि, छन्द, देवता, बीर, शक्ति, परमात्मा तथा गुरुका स्मरण करना चाहिये। मन्त्रके उच्चारणके साथ दोनों हाथोंको धोकर दोनों करतलोंमें प्रणवका न्यास करना चाहिये।
सभी अँगुलियों आदि-अन्त पर्वोपर और पाँचों मध्यम पॉपर बिन्दुपुरु पाँच बीजोंका उत्पत्ति आदि तीन भेदोंसे तथा ब्रह्मचर्य आदिके क्रमसे न्यास करना चाहिये।
दोनों हाथोंसे मस्तक से लेकर पैरतक प्रणवके द्वारा सम्पुटित मन्त्रसे देहका स्पर्श करना चाहिये।
प्रणवयुक्त मन्त्र से सिर, मुख, कण्ठ, हृदय, गुह्यस्थान एवं दोनों पैरो में; गुद्धस्थान, हृदय, कण्ठ, मुख तथा सिर में; पुनः हृदय, गुह्मस्थान, दोनों पैरों, सिर, मुख तथा कण्ठ में तीन प्रकारका व्यास करना चाहिये।
इस प्रकार अंगन्यास करके प्रणवसहित नकार से प्रारम्भ होकर यकारपर पूर्ण होनेवाले इन नकार आदि वर्णों की क्रमशः अपने शरीरमें भावना करे।
इसके बाद मन्त्र में नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् तथा फट् के साथ यथास्थान छहों अंगोंमें उत्तम रीति से न्यास करना चाहिये ॥ ६६-७४ ॥
इन अंगों के साथ मंत्र कैसे कार्य करता है?
इन अंगों को मंत्र के साथ ऋषिगणों ने क्यूँ जोड़ा है?
इनमे से कई मन्त्रों के साथ नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् तथा फट् पदों के साथ सिर, मुख, ह्रदय, गुदा, चरण तथा नाभि में न्यास किया जाता है।
उदाहरण के लिए भगवती दुर्गा के महामन्त्र "ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः" के ऋषि नारद, छन्दस् गायत्री, देवता दुर्गा, बीज दुं तथा शक्ति ह्रीं है।
1 ऋषि - इसका उच्चारण करते समय सिर के उपरी के भाग में इनकी अवस्था मानी जाती हैं।
2 छंद - गर्दन में
3 देवता - ह्रदय में
4 कीलक - नाभि स्थान पर
5 बीजं - कामिन्द्रिय स्थान पर
6 शक्ति - पैरों में (निचले हिस्से पर)
7 उत्कीलन - हांथो में
ऋषि, छन्द, देवता का विन्यास किए विना,जो मन्त्र-जप किया जाता है, उसका फल तुच्छ यानी न्यून हो जाता है। अतः साधना का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए न्यास द्वारा इनसे तादात्म्य स्थापित करना परमावश्यक है। हम पाते हैं कि प्रायः मन्त्र या स्तोत्र के विनियोग में ही इन बातों की चर्चा रहती है,यानी जिस मन्त्र का हम जप करने जा रहे हैं, अथवा स्तोत्र-पाठ करने जा रहे हैं,उसके ऋषि,छन्द और देवता कौन हैं- यह जानना-करना आवश्यक है। कहीं-कहीं और भी कुछ चर्चा जुड़ी रहती है,यथा बीज,शक्ति, कीलक,और अभीष्ट फल। -नियम है कि जहां जितनी बातों की चर्चा हो,वहां साधना में उतने का ही प्रयोग किया जाना चाहिए,अन्यथा क्रिया न्यूनाधिक दोष-युक्त(त्रुटि-पूर्ण) कही जायेगी,और परिणाम भी तदनुरुप ही होगा।
1-ऋषि-
परमात्मा और गुरु का स्थान शिर में सर्वमान्य है,अतः मन्त्र के ऋषि का न्यास शिर में ही किया जाना चाहिए। शिर के स्पर्श करते है
2-छन्द-
छन्द शब्द में ‘छ’ इच्छा वाचक,और ‘द’ दानार्थक है- देने अर्थ में। इस प्रकार अभीष्ट फल देने वाला मन्त्र ही है,जो गुरु-मुख से प्राप्त होता है,शिष्य की कर्ण-गुहा में। इस क्रम में आत्मज्योति मूलाधार से उठ कर हृदयादि से होते हुए,सहस्रदलपद्म में आकर प्रतिष्ठित होती है। मन्त्रमय छन्द का न्यास मुख में किया जाना चाहिए,क्यों कि साधक द्वारा जो मन्त्रोच्चारण किया जायेगा- अक्षरों का,उसका स्थान मुख ही है।
मुख में छन्द-न्यास करने की मुद्रा वैसी ही होगी,जैसे पांचों अंगुलियों को एकत्र करके हम भोज्य-ग्रास लेते हैं।
3-देवता-
शब्द का अर्थ मंत्र में देवत्व(देव-भाव)प्राप्त करना,जिसका मूल स्थान हृदय है। अतः देवता का न्यास यहीं करना चाहिए। न्यास की यहां मुद्रा होगी- खुली हथेली से हृदय का सानुभूति पूर्वक स्पर्श।
4-कीलक-
शरीर का केन्द्र नाभिमंडल है। कीलन का कार्य यहीं किया जाता है। यह भी एक प्रकार का सुरक्षा-कवच है,किन्तु कवच से जरा भिन्न है इसे केन्द्रीकरण भी कह सकते हैं। पूरी शक्ति को एकत्र कर के रख देने जैसा,जहां पूरी तरह सुरक्षा मिल जाय। इस कीलन के विपरीत की क्रिया निष्कीलन की होती है,जिसका प्रयोग विशेषरुप से कीलित मन्त्रों के लिए करना अनिवार्य होता है। निष्कीलन न्यास का अंग नहीं है।
5-बीज-
बीज वीर्य या रज(पुरुष-स्त्री)का प्रतीक है ।साधना क्रम में बीज के न्यास (स्थापना) का तात्पर्य है कि समुचित स्फुरण और विकास कुण्डलिनी के साथ ऊर्ध्वमुखी हो,और समुचित फल साधक को प्राप्त हो सके
6-शक्ति-
शरीर को चलायमान बनाने का काम करती है वैसे ही मंत्र में शक्ति इसको चलाने का कार्य करती है,शक्ति के बिना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शव भांति है इसलिए मन्त्रों के अंगों को कुछ इस तरह बनाया गया है जिस से वह श्रद्धा से पढ़ने वाले भक्तों को पूर्ण फल दे सके!
7-उत्कीलन-
उत्कीलन इतना ही है कि ‘परस्पर दो और लो’ मन्त्रों का स्पष्ट उच्चारण एवं शुद्ध भाव होना अत्यन्त अनिवार्य है अन्यथा विफल हो जाना सम्भव है।
भगवान योगीश्वर का स्पष्ट कथन है कि श्री जगदम्बा माता के अर्पण करो फिर उन्हीं से लो, यह अर्पण करना क्या है?
बस यही कि पहिले कुछ निःस्वार्थ हो कर तो करो कि केवल हाथ फैला कर लेने को ही उत्सुक हो , भजन, पाठ, पूजन, अर्चन, वन्दन, अनुष्ठान इत्यादि सभी कुछ, पहिले निःस्वार्थ भाव से राग रहित हो कर, निष्काम हो कर करो।
मातृका न्यासमातृका न्यास
मातृका अर्थात् वाणी। हमारी वाणी में सरस्वती का निवास माना जाता है। मातृका न्यास में साधक माता सरस्वती को वेद मंत्रों की शक्ति से लीला करते हुए अनुभव करता है। हम इस न्यास से बुद्धि, मोह-ममता के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और हमारी साधना सफल होती हैं। सही मायनो मे हमे न्यास से साधना मे सुरक्षा मिलती हैं। न्यास करने से कभी भी देवता के भंयकर रुप मे दर्शन नही होते हैं और साधना मे पूर्ण सफलता मिलेगी। जैसा कि इस न्यास के नाम से ही स्पष्ट है- इसमें मातृकाओं अर्थात् वर्णों(अक्षरों)की स्थापना शरीर के विशिष्ट अंगों में विधि पूर्वक की जाती है।
अकारादि वर्णमाला का ही सांकेतिक नाम‘मातृका’ है। वर्ण या अक्षर शब्द-ब्रह्म या वाक् शक्ति के स्वरुप हैं। इनका सूक्ष्म रुप विमर्श-शक्ति के नाम से ख्यात है,जिसे परावाक् कहतें हैं, जिसमें स्फुरणा मात्र होती है।
1. मंत्र शुद्धि (a. भ्रमण, b. रोधन, c. वशीकरण, d. पिडन, e. शोषन, f. पोषण, g. दहन)
2. उत्किलन (निष्किलन)
3. मंत्रों से मित्रता (मंत्रमैत्री)
4. श्राप से मुक्ति (शापविमोचन)
5. मंत्रों पर संस्कार
6. मंत्रों का जाप
7. एक पुरश्चरण
8. मंत्र का अर्थ
9. तकनीकों का तुलनात्मक महत्व
10. मंत्र सिद्ध करने के लिए आवश्यक छह तांत्रिक क्रियाएं (षट्कर्म)
11. प्रभावोत्पादक (सिद्ध) मंत्र
'किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले उसे शुद्ध करना पड़ता है। मंत्र शुद्धि की सात विधियाँ इस प्रकार दी गई हैं –
ब्राह्मणं रोधनं वशग्न्यं पीड़ां शोषपोथे।
दहना अविनाशं क्रमात् कुर्यात् तत: सिद्धिर्भवेन्न तु।
संक्षेप में इसका अर्थ है:
a. भ्रमण
मंत्र के सभी व्यंजनों को वायु (पूर्ण वायु) तत्व के बीज'यं' के साथ जोड़ना।
b. रोधन (रोधन)
मंत्र का जाप बीज ॐ से करना चाहिए।
c. वशीकरण
आलता, लालचंदन(रक्तचंदन), हल्दी, धतूरा के बीज या लाल रंग का उपयोग करके, मंत्र को भूर्ज पत्र पर लिखना चाहिए।
वैकल्पिक केले की पत्ती 108 पत्ती में नदी में बहा दे
d. पिडन (पीडन)
मंत्र को विशेष प्रकार के गोंद के लेटेक्स से लिखना चाहिए और पैर से दबाना चाहिए।
e. शोषन
वरुण के बीज 'वं' को जोड़ने के बाद मंत्र का जाप करना चाहिए।
f. पोषण
गुरु द्वारा बताए गए तीन बीजमंत्रों को जोड़ने के बाद मंत्र का जाप करना चाहिए।
फिर इसे गाय के दूध या शहद से लिखना चाहिए।
g. दहन
मंत्र के आरंभ, मध्य और अंत में अग्नि का बीज'रं' लगाकर मंत्र का जाप करना चाहिए।
फिर इसे पलाश के पेड़ के बीजों से निकले तेल से लिखना चाहिए।
कुछ मन्त्र अशुद्ध होते हैं.
जब वे बीजाक्षरों से सक्रिय हो जाते हैं तो उनकी सफाई हो जाती है और उनकी ऊर्जा प्रकट हो जाती है।
'अक्सर मंत्रों से दोस्ती करनी पड़ती है' ये दोस्ती संस्कारों से हासिल होती है.
जिस कारण के लिए मंत्र की आवश्यकता है और वह कारण किस हद तक शुद्ध, अशुद्ध, हल्का, कठोर, शुभ, अशुभ, प्रशंसात्मक या हानिकारक है, उसके आधार पर व्यक्ति को तदनुसार उस मंत्र पर कुछ अनुष्ठान (क्रिया) करना पड़ता है।
इन्हें करते समय उपयोग किए जाने वाले आसन, माला और यंत्र अलग-अलग होते हैं।
(मित्रता के मंत्र भी कई प्रकार के होते हैं)।
विभिन्न ऋषियों ने कुछ मन्त्रों को शापित कर दिया है। भगवान शंकर ने सात करोड़ महामंत्रों को शापित कर दिया है । गायत्री मंत्र को भी ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र, भगवान ब्रह्मा और वरुण द्वारा शापित किया गया है। इसलिए, किसी मंत्र को प्रभावशाली बनाने के लिए शाप को निम्नलिखित तरीकों से समाप्त करना होगा। अपने गुरु के मार्गदर्शन में निम्नलिखित मंत्रों का लगातार जाप करना चाहिए,
A. गायत्री मंत्र
मृत्युंजय मंत्र
'हंसाहा सोऽहम् ।'
मंत्र में शब्दों का उच्चारण उल्टे क्रम में करना।
B. संजीवन अनुष्ठान
इस अनुष्ठान में शामिल सभी तांत्रिक प्रक्रियाओं का तंत्र विज्ञान में विस्तार से वर्णन किया गया है ।
किसी भी मंत्र को प्रभावी बनाने के लिए गुरु के मार्गदर्शन में उस पर निम्नलिखित दस संस्कार करने की आवश्यकता होती है।
1. जनन
मंत्र को भूर्जपत्र के चर्मपत्र पर पित्त या मूत्र या गाय के सिर (गोरोचन) के चमकीले पीले रंग से लिखा जाना चाहिए। फिर शास्त्रों में वर्णित अनुसार मंत्र का यंत्र बनाना चाहिए और मंत्र के देवता का आवाहन कर उसकी पूजा करनी चाहिए।
2. दीपन
व्यक्ति को ' हंसः ' - " मंत्र " - सो..हं ' का एक हजार बार जाप करना चाहिए।
3. बोधन
व्यक्ति को ' हंसहा - " मंत्र " - हंसहा ' का पांच हजार बार जाप करना चाहिए।
4. ताड़न
व्यक्ति को एक हजार बार ' फट '-' मंत्र ''- फट का जाप करना चाहिए।
5. अभिषेक (पानी या तरल पदार्थ छिड़ककर अभिषेक)
' ऐं हंसः ओम - " मंत्र " - लक्ष्य हंसहा ओम ' और मंत्र का एक हजार बार जाप करें। मंत्र जाप करते समय भूर्जपत्र के चर्मपत्र पर लिखे मंत्र पर लगातार जल छिड़कते रहना चाहिए।
6. विमलीकरण
व्यक्ति को ' ओम ट्रंउ वषट् " मंत्र " - वषट् ट्रौम ओम ' का एक हजार बार जाप करना चाहिए।
7 जीवन
व्यक्ति को ' स्वधा वषत् - ' मंत्र ' - वषत् स्वधा ' का एक हजार बार जाप करना चाहिए।
8. तर्पण
एक हजार बार मंत्र का जाप करते हुए हर बार भूर्जपत्र के चर्मपत्र पर लिखे मंत्र पर दूध, घी और जल छिड़कना चाहिए।
9. गोपन
व्यक्ति को ' रिम ' - " मंत्र " - रं ' का एक हजार बार जाप करना चाहिए।
10. आप्यायन
व्यक्ति को ' हंसाः ' - " मंत्र " - तो ' का जाप करना चाहिए। हैम ' एक हजार बार
किसी मंत्र को सक्रिय करने का अर्थ है उसमें ऊर्जा बढ़ाना।
अग्नि या सूर्य के मंत्रों के लिए 'ओम राम' मंत्र का जाप तब करना चाहिए जब इड़ा नाड़ी चालू हो, यानी जब सांस बायीं नासिका से चल रही हो ।
जब पिंगला नाड़ी क्रियाशील हो, यानी जब दाहिनी नासिका से श्वास चल रही हो, तो मधुर मंत्रों या चंद्रमा के मंत्रों का भी जप करना चाहिए।
A. वायुसंहिता के अनुसार , 'पुरत्: चरणं' का अर्थ है पुरश्चरण , यानी तंत्र , मंत्र और जप के साथ की गई देवता की पूजा और मंत्र को अपेक्षित परिणाम देने में सक्षम बनाने के लिए किए गए निर्धारित अनुष्ठान। मंत्र का जाप आरंभ करें.
B. 'मंत्रफलसिद्धयर्थं नियतसङखिट्यको जप:।'
इसका मतलब है कि मंत्र के वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए विशेष मात्रा में जप करना [परोपकारी देवता / इष्टदेवता] को पुरश्चरण या पुरश्चरण कहा जाता है ।
7.2 महत्व
योगिनीहृदय ग्रंथ के अनुसार, जिस प्रकार निर्जीव व्यक्ति कोई भी कार्य करने में असमर्थ होता है, उसी प्रकार पुरश्चरण के बिना मंत्र अलौकिक शक्तियां / सिद्धियां प्रदान करने में असमर्थ होता है। यद्यपि गुरु से प्राप्त मंत्र प्रभावशाली होता है फिर भी कुछ संप्रदायों में इसका पुरश्चरण किया जाता है। पुरश्चरण अनुष्ठान से मंत्र प्रभावशाली हो जाता है और देवता भी प्रसन्न होते हैं ।
7.3 भाग
1. जप, 2. यज्ञ अग्नि होम, 3. पितरों को तर्पण, पानी या दूध जैसे तरल पदार्थ छिड़ककर देवता का अभिषेक 4. मार्जन, और 5. ब्राह्मणों को भोजन कराना (ब्राह्मण भोजन) पांच भाग हैं।
जपेदक्षरलक्षं वै चतुर्गुणितमादरात् ।
नक्ताशी संयमी यः स पौरश्चरणिकः स्मृतः ॥ १८
यः पुरश्चरणं कृत्वा नित्यजापी भवेत्पुनः ।
तस्य नास्ति समो लोके स सिद्धः सिद्धिदो भवेत् ।। १९
जो प्रतिदिन संयमसे रहकर केवल रातमें भोजन करता है और मन्त्रके जितने अक्षर हैं, उतने लाख का चौगुना जप आदरपूर्वक पूरा कर देता है, वह 'पौरश्चरणिक' कहलाता है। जो पुरश्चरण करके प्रतिदिन जप करता रहता है, उसके समान इस लोकमें दूसरा कोई नहीं है। वह सिद्धिदायक सिद्ध हो जाता - है॥ १८-१९॥
किसी मंत्र का प्रयोग करने से पहले उसका विधिवत सिद्ध होना आवश्यक है। उसके लिये मंत्र का पुरष्चरण किया जाता है। पुरष्चरण का अर्थ है मंत्र की पॉच क्रियाये, जिसे करने से मंत्र जाग्रत होता है और सिद्ध होकर कार्य करता है।
पहला है मंत्र का जाप
दूसरा है हवन
तीसरा है अर्पण
चौथा है तर्पण
पॉचवा है मार्जन
ब्राह्मण भोजन
अब इनके बारे मे विस्तार से जानते है
7.3.1. मंत्र जाप
गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का मानसिक उपांशु या वाचिक मुह द्वारा उच्चारण करना मंत्र जाप कहलाता है। अधिकांश मंत्रो का सवा लाख जाप करने पर वह सिद्ध हो जाते है। लेकिन पुरश्चरण करने के लिए उपरोक्त मंत्र में अक्षरों की संख्या को एक लाख से गुना कर जितनी संख्या आये उसके बराबर जप जप का दशांश हवन हवन का दशांश अर्पण अर्पण का दशांश तर्पण का दशांश मार्जन करने पर पुरश्चरण की विधि शास्त्रोक्त रीति से पूर्ण मानी जाती है इस विधि से पुरश्चरण करने पर साधक के अंदर एक दिव्य तेज प्रस्फुरिट होता है तथा प्राप्त सिद्धि को दीर्घ काल तक स्थायी रख पाने का सामर्थ्य आता है।
7.3.2. हवन
हवन कुंड मे हवन सामग्री द्वारा अग्नि प्रज्वलित करके जो आहुति उस अग्नि मे डाली जाती है,
उसे हवन या यज्ञ कहते है। मंत्र जाप की संख्या का दशांश हवन करना होता है। मंत्र के अंत मे स्वाहा लगाकर हवन करे। दशांश यानि 10% यानि सवा साख मंत्र का 12500 मंत्रो द्वारा हवन करना होगा।
7.3.3. अर्पण
दोनो हाथो को मिलाकर अंजुलि बनाकर हाथो मे पानी लेकर उसे सामने अंगुलियो से गिराना अर्पण कहलाता है।
अर्पण देवो के लिये किया जाता है, मंत्र के अंत मे अर्पणमस्तु लगाकर बोले।
हवन की संख्या का दशांश अर्पण किया जाता है यानि 12500 का 1250 अर्पण होगा।
7.3.4. तर्पण
अर्पण का दशांश तर्पण किया जाता है।
यानि 1250 का 125 अर्पण करना है।
मंत्र के अंत मे तर्पयामि लगाकर तर्पण करें। तर्पण पितरो के लिये किया जाता है।
दाये हाथ को सिकोड़ कर पानी लेकर उसे बायी साइड मे गिराना तर्पण कहलाता है।
7.3.5. मार्जन
मंत्र के अंत मे मार्जयामि लगाकर डाब लेकर पानी मे डुबा कर अपने पीछे की ओर छिड़कना मार्जन कहलाता है।
तर्पण का दशांश मार्जन किया जाता है।
ये पुरष्चरण के पॉच अंग है इऩके बाद किसी ब्राहमण को भोजन कराना चाहे तो करा सकते है। मंत्र सिद्धि के बाद उसका प्रयोग करें। आपको अवश्य सफलता मिलेगी
7.4 तैयारी
पुरश्चरण हिंदू चंद्र माह के शुक्ल पक्ष के पहले भाग में एक शुभ दिन पर शुरू किया जाता है, जब चंद्रमा और ग्रह अनुकूल होते हैं। यह ग्रहण के समय भी किया जा सकता है।
बाद में बताया गया मंत्र का एक हजार बार जाप करने का नियम इस पर लागू नहीं होता।
व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार पुरश्चरण के लिए चंद्र मास के किसी भी आधे हिस्से को चुन सकता है।
पुरश्चरण करने के लिए पवित्र स्थान, नदी तट, गुफाएं, पर्वत शिखर, नदियों का संगम, पृथक पार्क, भगवान शिव के मंदिर आदि आदर्श माने जाते हैं ।
पुरश्चरण के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए जहां ठंड, हवा या बारिश कर्ता को प्रभावित न करे या शारीरिक परेशानी न दे और जहां किसी भी चीज से एकाग्रता भंग न हो ।
मंत्र के पुरश्चरण से पहले साधक को मुखशोधन, जीवशोधन, अशौचभंग, कुल्लुक, निर्वाण, सेतु, निद्राभंग और मंत्रजागर आदि संस्कार करने चाहिए तथा क्रुच्च्र आदि तप भी करने चाहिए ।
क्रूच्र व्रत
क्रुच्छ व्रत की विधि इस प्रकार है. चार दिनों तक उस व्यक्ति को दोपहर के समय भोजन करना चाहिए। अगले चार दिनों तक, रात में और अगले चार दिनों तक, उसे बिना माँगे मिले भोजन पर निर्वाह करना चाहिए; और शेष अगले चार दिनों में उसे उपवास करना चाहिए।
तप्त-कृच्छ व्रत
व्यक्ति को एक दिन तक उबला हुआ दूध, घी और पानी का मिश्रण खाना या पीना चाहिए और अगले दिन उपवास करना चाहिए। इसे तप्त-कृच्छ व्रत के नाम से जाना जाता है।
महा-तप्त-क्रुच्च्र व्रत
गर्म उबला हुआ दूध, घी और पानी, इन सभी चीजों को तीन दिन तक अलग-अलग लेना चाहिए और अगले दिन उस व्यक्ति को उपवास करना चाहिए। इसे महा-तप्त-क्रुक्रम-व्रत कहा जाता है।
जो व्यक्ति तप्त-क्रुक्रम व्रत का पालन करता है, उसे स्थिर दिमाग वाला होना चाहिए, दिन में एक बार स्नान करना चाहिए और तीन दिनों तक गर्म पानी, तीन दिनों तक गर्म दूध और अगले तीन दिनों तक गर्म घी पीना चाहिए; और तीन दिन गर्म हवा अर्थात शेष तीन दिन व्रत रखें। उसे तीन दिन तक तीन चम्मच पानी, अगले तीन दिन तक दो चम्मच दूध पीना चाहिए; अगले तीन दिनों तक एक चम्मच घी और फिर अगले तीन दिनों तक गर्म भाप पर। भौतिक शरीर को शुद्ध करने के लिए व्यक्ति को गाय के दूध, दही, मक्खन, मूत्र और गोबर के मिश्रण (पंचगव्य) का सेवन करना चाहिए और पवित्र धागा (यज्ञोपवीत) पहनना चाहिए।
मंत्र में किसी भी दोष को दूर करने के लिए व्यक्ति को एक हजार या दस हजार बार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए, अपोहिष्ठ आदि वरुणसूक्त, पंचसूक्त, पवामांसूक्त, रुद्रसूक्त का पाठ करना चाहिए और पुरश्चरण की पूर्व संध्या पर ऋषियों को प्रसाद (ऋषितर्पण) देना चाहिए। यदि कोई सूक्त का पाठ करने में असमर्थ है तो उसे ब्राह्मण (पुजारी) को पाठ करने के लिए आमंत्रित करना चाहिए और उन्हें सुनना चाहिए। एक दिन पहले व्रत करना चाहिए.
7.5 पुरश्चरण का दिन
संकल्प व्यक्त करने के बाद पुण्य -वचन, मातृकापूजन और नंदीश्रद्धा करना चाहिए ।
पुरश्चरण के लिए घास ( दरभासन ), मृगचर्म या ऊन से बने आसन का उपयोग करना चाहिए । प्रतिदिन एक ही आसन एवं स्थान का चयन करना चाहिए। फिर व्यक्ति को ' पृथ्वी त्वय धृत लोक...' आदि मंत्रों के साथ आसन ( आसनविधि ) ग्रहण करने का अनुष्ठान करना चाहिए। फिर न्यास करने के बाद [परोपकारी देवता ( इष्टदेवता ) या मंत्र की स्थापना ] करें, देवताओं से प्रार्थना करें, छिड़कें माला पर पवित्र जल ( प्रोक्षण ) और सविता (सूर्य) देवता का ध्यान करके जप शुरू करना चाहिए।
एक जप
पुरश्चरण का कुल जप मंत्र में अक्षरों की संख्या , लाखों या करोड़ों के बराबर होना चाहिए। प्रतिदिन एक निश्चित मात्रा में जप पूरा करना तथा दोपहर से पूर्व समापन करना आवश्यक है।
यदि कोई हजारों की संख्या में पुरश्चरण करने का निश्चय करे और प्रतिदिन सौ आवर्तन करे तो दस दिन में एक लघु पुरश्चरण पूरा हो जायेगा। व्यक्ति को अपनी क्षमता के आधार पर राउंड की संख्या तय करनी चाहिए। यदि संख्या कम हो जाती है तो इसे पूरा करने में अधिक दिनों की आवश्यकता होगी और इसके विपरीत भी। हालाँकि यह याद रखना चाहिए कि जहाँ तक संभव हो शुरुआत में तय किए गए राउंड की संख्या ही पूरी करनी चाहिए।
7.5.A. जप
पुरश्चरण का कुल जप मंत्र में अक्षरों की संख्या, लाखों या करोड़ों के बराबर होना चाहिए। प्रतिदिन एक निश्चित मात्रा में जप पूरा करना तथा दोपहर से पूर्व समापन करना आवश्यक है।
यदि कोई हजारों की संख्या में पुरश्चरण करने का निश्चय करे और प्रतिदिन सौ आवर्तन करे तो दस दिन में एक लघु पुरश्चरण पूरा हो जायेगा। व्यक्ति को अपनी क्षमता के आधार पर राउंड की संख्या तय करनी चाहिए। यदि संख्या कम हो जाती है तो इसे पूरा करने में अधिक दिनों की आवश्यकता होगी और इसके विपरीत भी। हालाँकि यह याद रखना चाहिए कि जहाँ तक संभव हो शुरुआत में तय किए गए राउंड की संख्या ही पूरी करनी चाहिए।
मुंडमाला आदि प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि न तो मात्रा घटाना-बढ़ाना चाहिए और न ही दिनचर्या तोड़नी चाहिए। हालाँकि, ऋषि वैशम्पायन कहते हैं कि यदि खराब स्वास्थ्य, बुखार, शोक या प्रसव ( सोयार-सूतक ) के कारण अशुद्धियाँ आदि जैसी कठिनाइयों के कारण अधिक समय लगता है या पूर्व निर्धारित मात्रा में भिन्नता होती है, तो इसका कोई मतलब नहीं है।
मंत्र विज्ञान से दस हजार आदि मात्राएँ भी चुनी जा सकती हैं। तदनुसार तीन प्रकार के पुरश्चरण संभव हैं। 1000 के साथ प्राथमिक, 10,000 के साथ मध्यम और 1,00,000 राउंड ( अवतार ) के साथ श्रेष्ठ। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति मंडल महामंडल विधि से 441 (21 x 21) अथवा 9261 (21 x 21 x 21) बार जप करके पुरश्चरण भी कर सकता है।
7.5.B. हवन
पूर्व निर्धारित मात्रा पूरी होने पर उसके दसवें हिस्से से अग्नि से आहुति देकर हवन किया जाता है। यदि यह संभव न हो तो हवन की मात्रा का चार गुना जप करना चाहिए ।
पुरश्चरण के दौरान हवन में उबले हुए चावल ( चरू ), तिल, चावल और दूध से बनी मिठाई ( पयास ), दूर्वा और यज्ञ अग्नि की छड़ें ( समिधा ) का उपयोग किया जाता है ।
हवन में प्रयुक्त सामग्री को पुरश्चरण के संकल्प के अनुसार संशोधित करना चाहिए ।
7.6 निष्कर्ष / समाप्ति
पुरश्चरण पूरा होने के बाद यजमान को अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार पुरोहित को धन /दक्षिणा देना चाहिए और यह कार्य भगवान को समर्पित कर देना चाहिए।
पुरश्चरण के दौरान मिथ्या भाषण करना और पुरश्चरण स्थल को छोड़ना वर्जित है।
पुरश्चरण काल में यजमान को भूमि पर शयन करना चाहिए। पुरश्चरण को ब्राह्मण से करवाने की अपेक्षा स्वयं करना अधिक लाभकारी होता है ।
8. मंत्र का अर्थ
मंत्र का जाप उसके अर्थ पर ध्यान केंद्रित करके करना चाहिए और इस तरह पूरे शरीर को उसमें लीन होने देना चाहिए।
जप की मात्रा
1. एक पुरश्चरण 24,00,000
2. मंत्र में 'स्वाहा' प्रत्यय लगाकर हवन करना 2,40,000
3. 'सविताराम तर्पयामि' प्रत्यय लगाकर तर्पण करें 24,000
4. 'आत्मानं मार्जयमि' प्रत्यय लगाकर मार्जन 2,400
5. ब्राह्मण को भोजन कराना 240
कुल 26,66,640
प्राय: एक प्रश्न आता है कि इसका क्या प्रमाण है कि साधक व्यक्ति का मन्त्र जप सफल हो रहा है या नहीं? ऋषियों ने इसके परीक्षण के कुछ लक्षण बताए है। जैसे-
【】अद्भुत रूप से साधक के चेहरे पर चमक आना
【】छठी इंद्रिय जागृति का आभास
【】मन्त्र जप के समय अनायास चौंक जाना
【】अद्भुत रूप से साधक के चेहरे पर चमक आना
【】कुंडलिनी मे रोमांच होना / अत्यधिक आनंद महसूस होना
【】अश्रुपात होना
【】मन्त्र के देवता की उपस्थ्ति का आभास होना
【】स्वप्न में हवन करना
【】व्यक्ति के शरीर में अलग-अलग भागों में गर्मी या ठंडक महसूस होना
【】पुण्य तीथों में भ्रमण करना
【】उच्च स्थानों (हिमालय, नदी, शिव स्थान, ब्रह्मांड, स्वर्ग, मंदिर) पर ध्यान में चलना
【】इष्ट देवता, देवी, गुरु के दर्शन-पूजन करना आदि
【】कान / मस्तिष्क में असामान्य तेज ध्वनि सुनाई देना
इसी प्रकार पाप या किसी भी प्रकार के अपराध की प्रवृत्ति का नष्ट होना पुराणों में पापक्षय कहा जाता है। मन्त्र की सफलता का यह सबसे बड़ा लक्ष्य है।
रोली 50 ग्राम, हल्दी 50 ग्राम, कलावा (मौली) 5 पैकेट, सिंदूर 1 पैकेट, लौंग 1 पैकेट, इलायची 1 पैकेट, सुपारी (छोटी और बड़ी) 11 नग, पान 11 नग, अबीर 1 पैकेट, गुलाल 1 पैकेट, अभ्रक 50 ग्राम, लाल चंदन बुरादा 50 ग्राम, श्वेत चंदन 50 ग्राम, अष्टगंध चंदन 50 ग्राम, महाराजा चंदन 1 पैकेट, कुमकुम पीला 1 पैकेट, शहद 1 शीशी, इत्र 1 शीशी, चमेली का तेल 1 शीशी, गंगाजल (बड़ी बोतल) 1 शीशी, गुलाबजल (बड़ी) 1 शीशी, केवड़ा जल 1 शीशी, कमल बीज 50 ग्राम, सप्तधान्य 50 ग्राम, काला तिल 50 ग्राम, जौ 50 ग्राम, गुर्च 50 ग्राम, लाल कपड़ा 1 मीटर, पीला कपड़ा सूती 1 मीटर, श्वेत कपड़ा 1 मीटर, पीली सरसों 1 पैकेट, जनेऊ 8 नग, धूपबत्ती 2 पैकेट, भस्म 1 पैकेट, शमीपत्र 1 पैकेट, रूईबत्ती (गोल और लंबी) 1 पैकेट, घी 250 ग्राम, कपूर 50 ग्राम, भांगगोला 1 नग, पानी नारियल (स्नान हेतु) 2 नग, दोना (बड़ा साइज) 1 पैकेट, दियाळी 15 नग, पंचमेवा, नैवेद्य, चीनी 500 ग्राम, चावल 250 ग्राम, पार्वती जी के लिए साड़ी 1 नग, शृंगार सामग्री 1 सेट, चांदी अथवा सवर्णाभूषण (निष्ठानुसार), भोलेनाथ हेतु वस्त्र (धोती गमछा आदि), चांदी का सिक्का (किसी देवता की आकृति विहीन), गन्ने का रस (2 लीटर), पान के पत्ते (बड़े साइज) 11 नग, फल एवं मिठाई आवश्यकतानुसार, सफेद फूल (गुलाब, गेंदा, कमल, क्राउन हेड फ्लॉवर, फूलो की लड़ी), धूतर पुष्प एवं फल, तुलसी मंजरी, बेलपत्र 108 पीस, हरी भांग, रुद्राक्ष माला 1 नग, फलो का जूस (स्नान हेतु) 1+1, दूर्वा हरी (अंकुरित), पंचामृत, दूध, दही, दियाळी, सकोरा, दोना, आटा, नैपकिन्स, बड़ी (फूलसाइज) की परांत (रुद्राभिषेक करने के लिए), बाल्टी, रंगोली, एक कॉपर/ब्रास या सिल्वर प्लेट शिव लिंग को रखने के लिए, रुद्राभिषेक करने के लिए एक शृंगी, चौकी कवर करने के लिए एक टुकड़ा ताजा कपड़ा, मैचबॉक्स, ताजा कपड़ा, शिव लिंग / शिव परिवार / शिव पार्वती की तस्वीर, पंचपत्र, खीर, घंटी, शंख, त्रिशूल, आसन, गंगाजल, पानी, दिक्पाल ध्वज, गोमूत्र, वस्त्र (पंडित के अनुसार), सिक्के नोट, कसल्स (बड़ी और छोटी), दीपक (घी बत्ती), धूप, सुपारी, लौंग, कूष्माण्ड (पेठा), पान, सुपारी, लौंग, छोटी इलायची, कमल गट्ठे, जायफल, मैनफल, पीली सरसों, पंचमेवा, सिन्दूर, उड़द मोटा, शहद, ऋतु फल, केले, नारियल, गोला, गूगल ग्राम, लाल कपड़ा, चुन्नी, गिलोय, सराईं, आम के पत्ते, सरसों का तेल, कपूर, पंचरंग, केसर, लाल चंदन, सफेद चंदन, सितावर, कत्था, भोजपत्र, काली मिर्च, मिश्री, अनारदाना।
कुम्हार की मिटटी (गिली वाली) 7 किलो -पार्थिव लिंग बनाने के लिए आपको शुद्ध मृदा या चिकनी मिट्टी का उपयोग करना होगा। इसे सुगंधित जल से मिलाकर लिंग की आकृति में बनाया जा सकता है।
एक हवन कुंड
ईंटें और मिट्टी (हवन कुंड की नीचे रखने के लिए उपयोग की जाती हैं। यह हवन कुंड को स्थिरता प्रदान करने में मदद करती है ताकि यज्ञ के दौरान वह हिलने न पाए)
कुश का आसन, हवन पुस्तिका
चंदन, बेल, नीम, आम और पीपल की सूखी लकड़ी
चावल, काला तिल, सूखा नारियल, जौ
कपूर, गाय का घी, लोबान, गुग्गल, शक्कर
मुलैठी की जड़, अश्वगंधा, ब्राह्मी, पलाश और गूलर की छाल
रोली, धूप, दीप, अगरबत्ती, पान के पत्ते, मिठाई
इलायची, लौंग, 5 प्रकार के फल, शहद, सुपारी
कलावा, हवन सामग्री, गंगाजल, चरणामृत, फूलों की माला
नवग्रह की नौ समिधा (आक, ढाक, कत्था, चिरचिटा, पीपल, गूलर, जांड, दूब, कुशा)
बूरा तथा सामग्री श्रद्धा के अनुसार
जौ
आम या ढाक की सूखी लकड़ी
गुरु दीक्षा का समय चयन एक व्यक्ति के आस्थाओं, स्वभाव, और धार्मिक परंपराओं पर निर्भर कर सकता है। हिन्दू धर्म में, ऐसी पूजनीय घड़ी का चयन करते समय ज्योतिषीय मुहूर्त और धार्मिक पंचांग का महत्व होता है। ज्योतिषशास्त्र में कहा जाता है कि विशेष मुहूर्तों में कार्यों का आरंभ करना शुभ होता है। यह इस प्रकार किया जा सकता है:
तिथि (Lunar Calendar): चंद्रमा के स्थिति और तिथियों का महत्व हो सकता है। कुछ लोग शुक्ल पक्ष की तिथियों को अधिक शुभ मानते हैं, जबकि कुछ कृष्ण पक्ष की तिथियों को।
नक्षत्र (Constellation): आसमान पर चलने वाले तारों की स्थिति और नक्षत्रों का भी महत्व हो सकता है।
वार (Day): कुछ लोग विशेष वार को शुभ मानते हैं, जैसे कि Sunday, Monday, बृहस्पतिवार (गुरुवार) या रविवार (आदित्यवार)।
मुहूर्त (Auspicious Time): Apart than Rahu Kaal
गुरु दीक्षा के लिए उपयुक्त और शुभ मुहूर्त का चयन करने के लिए स्वयं की संप्रदायिक आदतों और आस्थाओं के अनुसार आपके स्थानीय धार्मिक आचार्य या पंडित से परामर्श करना सबसे अच्छा है।
Main – Guru Purnima, har mahine purnmasi. maha shivratri, masik shivratri, Navratri
• संकल्प के समय पर एक माला दैनिक मंत्र का करें, ज्यादा का नहीं, चाहिए मानसिक ही न हो, अगर यात्रा, स्वास्थ्य या और कोई भी समस्या हो, पर करना है जरूर।
• धीरे-धीरे 24 लाख जाप कर सम्पूर्ण मंत्र सिद्धि करें।
• गुरु की मार्गदर्शा में हठ योग द्वारा शिव शक्ति कुंडलिनी जागरण की यंत्र शुरू करो।
• जब अगली साधना - उन्नत स्तर में शुरू करो, तो कीलक मंत्र को और ज्यादा विधिवत – मंत्र उत्कीलन पद्धति से मंत्र की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करो।
• गुरु बनने के बाद गुरु जी को भूले नहीं होता, रोज मंत्र जाप से पहले गुरु की नाम की साथ गुरु मंत्र की 1 माला करनी होती है।
• जब संभव हो, उनके मार्गदर्शन आशीर्वाद लेते रहो / जैसे हो सकते सेवा करो।
• गुरु जी के मिशन को आगे बढ़ाओ, संस्थान के सामाजिक और आध्यात्मिक परियोजनाओं का प्रचार-प्रसार करो।
• जब गुरु जी से कम से कम 6-12 महीने नियमित आध्यात्मिक रूप से जुड़ो, तो गुरु दीक्षा शिविर में शामिल हो और पूर्ण दीक्षा लो… महाशिवरात्रि / गुरु पूर्णिमा / नवरात्रो में होती है।
• प्रोजेक्ट मेक इन इंडिया / युवा रोजगार - अगर संभव होतो संस्थान की आर्थिक परियोजनाओं को वाणिज्यिक और आध्यात्मिक रूप से चलाओ जैसे – योग शिक्षक प्रशिक्षण, आयुर्वेद का सामान, जैविक और हिमालयी खाद्य उत्पाद, पूजा सामग्री, जैविक चाय स्टॉल और सात्विक कैफे का काम अपने शहर में शुरू करो।
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